ढाका की सियासत और भारत–बांग्लादेश रिश्तों का टर्निंग पॉइंट
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| India Bangladesh relations by Ravi Kumar Manjhi |
भारत और बांग्लादेश के संबंध केवल दो पड़ोसी देशों के रिश्ते नहीं हैं, बल्कि इतिहास, संस्कृति और साझा हितों से गहराई से जुड़े हुए हैं। 1971 के मुक्ति संग्राम के बाद से भारत ने बांग्लादेश के साथ एक भरोसेमंद साझेदार की भूमिका निभाई है। सीमा विवादों का समाधान, व्यापार में वृद्धि, ऊर्जा सहयोग और कनेक्टिविटी परियोजनाएँ इस रिश्ते की मजबूती का प्रमाण रही हैं। लेकिन हाल के महीनों में ढाका में हुए राजनीतिक घटनाक्रमों ने इन संबंधों के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।
अगस्त 2024 में शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग सरकार के पतन को बांग्लादेश की राजनीति में एक बड़े मोड़ के रूप में देखा जा रहा है। यह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं था, बल्कि उस राजनीतिक स्थिरता का अंत भी था, जिस पर भारत–बांग्लादेश संबंध लंबे समय से टिके हुए थे। इस बदलाव के बाद राष्ट्रीय नागरिक पार्टी जैसे नए राजनीतिक दल उभरे हैं, जिनका नेतृत्व उन छात्र कार्यकर्ताओं के हाथ में है जो सरकार-विरोधी आंदोलनों में सक्रिय थे। इसके साथ ही जमात-ए-इस्लामी जैसी इस्लामी राजनीतिक शक्तियों की वापसी भी हुई है, जिन्हें पारंपरिक रूप से भारत के प्रति आलोचनात्मक माना जाता है।
इस आंतरिक राजनीतिक उथल-पुथल के साथ-साथ बाहरी शक्तियों की बढ़ती भूमिका भारत की चिंता बढ़ाती है। बांग्लादेश और चीन के बीच रणनीतिक सहयोग लगातार गहरा हो रहा है। भारत के सिलीगुड़ी कॉरिडोर के पास लालमोनिरहाट एयरफील्ड का उन्नयन इसी दिशा में एक अहम संकेत है। वहीं पाकिस्तान के साथ भी बांग्लादेश के सैन्य संपर्क बढ़े हैं, जैसे पाकिस्तानी नौसेना के फ्रिगेट का हालिया दौरा। इन घटनाओं से यह संकेत मिलता है कि बांग्लादेश अपनी विदेश नीति में नए विकल्प तलाश रहा है, जिससे भारत का पारंपरिक प्रभाव कमजोर पड़ सकता है।
बांग्लादेश की आंतरिक अस्थिरता का असर भारत पर प्रत्यक्ष रूप से भी दिखने लगा है। हालिया हिंसक प्रदर्शनों के दौरान चट्टोग्राम स्थित भारतीय असिस्टेंट हाई कमीशन में तोड़फोड़ की गई। यह घटना बताती है कि घरेलू राजनीतिक तनाव किस तरह भारत–बांग्लादेश कूटनीतिक संबंधों को प्रभावित कर सकता है। इसके अलावा बढ़ती अस्थिरता से अवैध प्रवासन और सीमा पार घुसपैठ का खतरा भी बढ़ जाता है, जिसका असर भारत के सीमावर्ती राज्यों की आंतरिक सुरक्षा और सामाजिक संतुलन पर पड़ सकता है।
भारत द्वारा अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना को मानवीय आधार पर शरण देना भी एक संवेदनशील मुद्दा बन गया है। भारत का कहना है कि यह निर्णय मानवीय मूल्यों के तहत लिया गया है और उन्हें किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि की अनुमति नहीं दी गई है। दूसरी ओर, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने इस पर आपत्ति जताई है और इसे देश की आंतरिक स्थिरता से जोड़कर देखा है। इससे दोनों देशों के बीच अविश्वास की स्थिति और गहरी हुई है।
इन राजनीतिक तनावों के बीच कुछ अहम द्विपक्षीय मुद्दे भी अधर में लटकते दिख रहे हैं। 1996 की गंगा जल संधि का नवीनीकरण दिसंबर 2026 में होना है, लेकिन अब तक इस पर औपचारिक बातचीत शुरू नहीं हुई है। जबकि वास्तविकता यह है कि गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों से बने बाढ़ के मैदान बांग्लादेश की लगभग 80 प्रतिशत भूमि को सिंचित करते हैं। जल सहयोग में किसी भी तरह की अनिश्चितता सीधे खाद्य सुरक्षा और आजीविका को प्रभावित कर सकती है।
आर्थिक दृष्टि से भारत और बांग्लादेश के रिश्ते अब भी मजबूत हैं। वित्तीय वर्ष 2023–24 में दोनों देशों के बीच व्यापार 14.01 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया, जिससे बांग्लादेश दक्षिण एशिया में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया है। बांग्लादेश भारत से लगभग 1,160 मेगावाट बिजली आयात करता है और भारत की सहायता से निर्मित 1,320 मेगावाट का मैत्री सुपर थर्मल पावर प्लांट ऊर्जा सहयोग का बड़ा उदाहरण है। भारत ने सड़कों, रेलवे और बंदरगाहों के विकास के लिये लगभग 8 अरब अमेरिकी डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट भी प्रदान की है। चटगाँव और मोंगला बंदरगाहों के माध्यम से भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को समुद्री मार्ग से जोड़ना इस साझेदारी का एक व्यावहारिक लाभ है। फिर भी, सबसे बड़ी चुनौती धारणा की है।
बांग्लादेश की नई पीढ़ी, जो 1971 के इतिहास से भावनात्मक रूप से जुड़ी नहीं है, अक्सर भारत को संदेह की दृष्टि से देखती है। कुछ युवा नेता खुले तौर पर भारत के खिलाफ बयान दे रहे हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि संबंधों की दिशा अब केवल ऐतिहासिक स्मृतियों से तय नहीं होगी। ऐसे में भारत के लिये ज़रूरी है कि वह केवल सरकारों तक सीमित न रहे, बल्कि बांग्लादेश के युवाओं, नागरिक समाज, मीडिया और सभी राजनीतिक धाराओं के साथ संवाद बढ़ाए। जल कूटनीति जैसे संवेदनशील मुद्दों पर समय रहते पारदर्शी बातचीत शुरू की जाए। अवसंरचना और विकास परियोजनाओं को तेज़ी से पूरा कर यह दिखाया जाए कि भारत की साझेदारी केवल रणनीतिक नहीं, बल्कि आम लोगों के जीवन से जुड़ी हुई है।
कुल मिलाकर, ढाका में हुए राजनीतिक बदलाव भारत–बांग्लादेश संबंधों के लिये एक कठिन परीक्षा हैं, लेकिन यह पूरी तरह संकट नहीं है। यदि भारत संवेदनशीलता, धैर्य और व्यावहारिक कूटनीति के साथ आगे बढ़ता है, तो यह दौर दोनों देशों के बीच रिश्तों को अधिक संतुलित और परिपक्व बनाने का अवसर भी बन सकता है। दक्षिण एशिया की स्थिरता और सहयोग का भविष्य काफी हद तक इसी समझदारी पर निर्भर करेगा।
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लेखक: रवि कुमार माँझी
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